कहानी संग्रह >> बोलता लिहाफ बोलता लिहाफमृणाल पाण्डेविष्णु नागर
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इस संग्रह में हिन्दी के श्रेष्ठ कथाकारों द्वारा लोकप्रिय मासिक ‘कादम्बिनी’ के ‘कथा-प्रतिमान’ स्तम्भ के लिए चयनित विश्व-साहित्य की श्रेष्ठ-कहानियाँ संकलित हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इस संग्रह में हिन्दी के श्रेष्ठ कथाकारों द्वारा लोकप्रिय मासिक ‘कादम्बिनी’ के ‘कथा-प्रतिमान’ स्तम्भ के लिए चयनित विश्व-साहित्य की श्रेष्ठ-कहानियाँ संकलित हैं। चयनकर्ता कथाकारों ने इसमें अपनी पसन्द के कारणों का जिक्र करते हुए इन कहानियों की विशिष्टताओं का भी वर्णन किया है, जिसमें इस संग्रह की उपयोगिता बढ़ गई है।
विभिन्न कालखंडों में रची गई ये कहानियाँ अपनी रचनात्मक विशिष्टता के लिए चर्चित रही हैं। इस संग्रह में शामिल कथाकारों की कहानी-कला का मर्म मानव-जीवन के मूल्यों को लेकर उनकी सतत दुविधा और विस्मय का भाव है जो हमारे मन में मानव जीवन की असारता या क्षुद्रता के प्रति खीज नहीं उपजाते बल्कि एक गहरी हलचल मचाए रखते हैं। यही कारण है कि ये कहानियाँ आज भी हमें उतनी टटकी और अन्तरंग महसूस होती हैं जितने अपने समकालीन पाठकों के लिए रही होंगी। विश्व के समर्थ कहानीकारों और उनकी विशिष्ट कथाकृतियों को सुलभ कराने का हमारा यह विनम्र प्रयास निश्चय ही आपको पसन्द आएगा और प्रेरणादायक लगेगा, ऐसा हमारा विश्वास है।
विभिन्न कालखंडों में रची गई ये कहानियाँ अपनी रचनात्मक विशिष्टता के लिए चर्चित रही हैं। इस संग्रह में शामिल कथाकारों की कहानी-कला का मर्म मानव-जीवन के मूल्यों को लेकर उनकी सतत दुविधा और विस्मय का भाव है जो हमारे मन में मानव जीवन की असारता या क्षुद्रता के प्रति खीज नहीं उपजाते बल्कि एक गहरी हलचल मचाए रखते हैं। यही कारण है कि ये कहानियाँ आज भी हमें उतनी टटकी और अन्तरंग महसूस होती हैं जितने अपने समकालीन पाठकों के लिए रही होंगी। विश्व के समर्थ कहानीकारों और उनकी विशिष्ट कथाकृतियों को सुलभ कराने का हमारा यह विनम्र प्रयास निश्चय ही आपको पसन्द आएगा और प्रेरणादायक लगेगा, ऐसा हमारा विश्वास है।
ज़िन्दगी का असली बाँकपन
कथा-सम्राट प्रेमचन्द का एक चित्र है, जो हम सभी स्कूली जमाने से देखते आ
रहे हैं। उस चित्र में कुछ है, जो हम सभी को पहले का देखा हुआ-सा प्रतीत
होता है। कई रहस्य, कई अनकही कहानियाँ, एक तरह की थकानभरी उत्सुकता उस
चेहरे में है। किसने ली थी यह तस्वीर, जिसमें कथाकार की आँखों में छिपा
विस्मय और विषाद इब्बेदार मूँछों में छिपी कौतुकपूर्ण मुस्कान समेत आज भी
साफ पढ़ा जा सकता है।
प्रेमचन्द की यह छवि कहानीकार और कहानी कहने की कला के कई राज खोलती है। उनकी दृष्टि में एक कथाकार की वह अन्तर्मुखी विचारमग्नता है, जो जीवन की विडम्बनाओं को बहुत करीब से देखती-परखती रही है। जीवन के जटिल विरोधाभासों को कहानी कला की मदद से टटोलते हुए एक महान् कथाकार जिन अर्द्धसत्यों और अधूरे जवाबों तक पहुँचता है, वे उसकी आगे आने वाली कई कहानियों के लिए जमीन तैयार करते हैं। बिना रहस्मयता के, बिना उत्सुकतापूर्वक-‘फिर क्या हुआ ?’ के, बिना अधूरे उत्तरों की श्रृंखला के, एक अविस्मरणीय कहानी नहीं कही जा सकती, आत्मकथ्य; स्मृतिचित्र या आत्मकथात्मक फंतासी के टुकड़े भर तैयार किए जा सकते हैं।
‘कादम्बिनी’ पत्रिका ‘कथा-प्रतिमान’ स्तम्भ के अन्तर्गत प्रकाशित इस संकलन में प्रस्तुत तमाम कहानियों को पढ़ने से ही नहीं, इन कहानियों के चयनकर्ता (जो खुद वरिष्ठ और सशक्त कथाकार हैं) द्वारा चयनित कहानियों पर टिप्पणी से भी उपरोक्त तथ्य दोबारा प्रमाणित होते हैं। संकलित कहानियों की कमानी एक लम्बा कालखंड मापती है और उसमें देशी-विदेशी सभी कई लेखकों की कहानियाँ हैं पर चयनकर्ताओं की जौहरी दृष्टि ने कहानी-कला के इतिहास के महासागर से ‘दो बाँके’ (भगवतीचरण वर्मा), ‘उसने कहा था’ (गुलेरी), ‘बोलता लिहाफ़’ (पारस्परिक जापानी कहानी) जैसे जो पुराने रत्न सहज ही खोज निकाले हैं, उनमें भी वही विशिष्टताएँ हैं, जो अपेक्षया अधुनातन और विदेशी कथाकारों की रचनाओं में ! प्रेमचन्द की रचनाओं का गहरा विडम्बना बोध, उनकी सहज करुणा और जीवन की सनातन रहस्यमयता के प्रति गहरा आदरभाव भीष्म साहनी, यशपाल, गुलेरी, भगवतीचरण वर्मा, प्रीतमसिंह पंछी और भुवनेश्वर ही नहीं बाँटते, यहूँदी (इज़ाक बेबल), अमेरिकी (स्टीन बैक), स्लाव (जीरो मूका और चापेक), अफ्रीकी (बेन ओकरी) और इतालवी (रॉबर्टो ब्राको) लेखकों की रचनाएँ भी उन्हें उभारती और रेखांकित करती चलती हैं।
विश्व के सभी बड़े कहानीकार अपने निजी और राष्ट्रीय जीवन में भारी उतार-चढ़ाव झेल चुके हैं। भीष्म साहनी और यशपाल ने विभाजन की त्रासदी को करीब से जिया था, तो ओकरी, चापेक तथा स्टीन बैक ने भी अकाल, तानाशाही और विस्थापन का दर्द झेला है। गुलेरी विश्वयुद्ध के चश्मदीद गवाह रहे हैं, तो विद्यासागर नौटियाल भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के उत्थान पतन के चरम क्षणों के ! इसलिए उन सभी की कहानी-कला का मर्म है मानव जीवन के मूल्यों को लेकर एक सतत दुविधा और विस्मय का भाव यह दुविधा और यह विस्मय मानव जीवन की असारता या क्षुद्रता के प्रति खीझ से नहीं उपजते। यह सामान्य मनुष्यों की जिन्दगी में यदा-कदा हठात् झलक उठने वाली महानता और दार्शनिक गहराई को लेकर कथाकार के मन-मस्तिष्क में लगातार एक गहरी हलचल मचाए रखते हैं।
और शायद यही वजह है कि अपनी कहानियों में किस्सागो प्रेमचन्द, गुलेरी, भुवनेश्वर, यशपाल अथवा भगवतीचरण वर्मा कालक्रम के परे अपने समयवस समकालीन पाठकों के लिए रहे होंगे। तो इस बिन्दु पर आकर हमें कुछ-कुछ समझ में आने लगता है कि सफल कथा लेखन का प्रतिमान क्या है ? चित्र में खड़े प्रेमचन्द जब वे नहीं लिख रहे हैं, दरअसल बाहर नहीं, स्वयं अपने भीतर झाँक रहे हैं, वे उन तमाम दुविधाओं, रहस्यों और अन्तरंग झलकियों को स्वयं अपनी बुद्धि, अपने चेतन-अवचेतन मन की कसौटी पर कस रहे हैं और उन्हें देखते-देखते इत्मीनान हो जाता है कि एक और अविस्मरणीय अद्भुत कहानी अब बस लिखी ही जानेवाली है।
विश्व के समर्थ कहानीकारों और उनके समृद्ध रचना संसार को पाठकों तक ले जाने का ‘कादम्बिनी’ का यह विनम्र प्रयास आशा है, सुधी पाठकों और साहित्य के रचयिताओं, को एक समान सरस और प्रेरणादायक लगेगा। शमशेर बहादुर सिंह द्वारा एक लेखिका (सुभद्रा कुमारी चौहान) के प्रसंग में कहे गए शब्द उधार लें, तो इन कथाओं में भी : ....छल नहीं है, बनावट नहीं है, दिखावा नहीं है, न प्रशंसा की माँग है, सिर्फ उमंग है, और दर्द है, एक गहरी संवेदना है, जिन्दगी का असली बाँकपन है। उसमें अगर कला है तो यही सब है। कला का तो मूव और सूद जो कुछ भी है, केवल उधार लिया गया है अपनी और समाज की भरी-पूरी जिन्दगी से।’........
प्रेमचन्द की यह छवि कहानीकार और कहानी कहने की कला के कई राज खोलती है। उनकी दृष्टि में एक कथाकार की वह अन्तर्मुखी विचारमग्नता है, जो जीवन की विडम्बनाओं को बहुत करीब से देखती-परखती रही है। जीवन के जटिल विरोधाभासों को कहानी कला की मदद से टटोलते हुए एक महान् कथाकार जिन अर्द्धसत्यों और अधूरे जवाबों तक पहुँचता है, वे उसकी आगे आने वाली कई कहानियों के लिए जमीन तैयार करते हैं। बिना रहस्मयता के, बिना उत्सुकतापूर्वक-‘फिर क्या हुआ ?’ के, बिना अधूरे उत्तरों की श्रृंखला के, एक अविस्मरणीय कहानी नहीं कही जा सकती, आत्मकथ्य; स्मृतिचित्र या आत्मकथात्मक फंतासी के टुकड़े भर तैयार किए जा सकते हैं।
‘कादम्बिनी’ पत्रिका ‘कथा-प्रतिमान’ स्तम्भ के अन्तर्गत प्रकाशित इस संकलन में प्रस्तुत तमाम कहानियों को पढ़ने से ही नहीं, इन कहानियों के चयनकर्ता (जो खुद वरिष्ठ और सशक्त कथाकार हैं) द्वारा चयनित कहानियों पर टिप्पणी से भी उपरोक्त तथ्य दोबारा प्रमाणित होते हैं। संकलित कहानियों की कमानी एक लम्बा कालखंड मापती है और उसमें देशी-विदेशी सभी कई लेखकों की कहानियाँ हैं पर चयनकर्ताओं की जौहरी दृष्टि ने कहानी-कला के इतिहास के महासागर से ‘दो बाँके’ (भगवतीचरण वर्मा), ‘उसने कहा था’ (गुलेरी), ‘बोलता लिहाफ़’ (पारस्परिक जापानी कहानी) जैसे जो पुराने रत्न सहज ही खोज निकाले हैं, उनमें भी वही विशिष्टताएँ हैं, जो अपेक्षया अधुनातन और विदेशी कथाकारों की रचनाओं में ! प्रेमचन्द की रचनाओं का गहरा विडम्बना बोध, उनकी सहज करुणा और जीवन की सनातन रहस्यमयता के प्रति गहरा आदरभाव भीष्म साहनी, यशपाल, गुलेरी, भगवतीचरण वर्मा, प्रीतमसिंह पंछी और भुवनेश्वर ही नहीं बाँटते, यहूँदी (इज़ाक बेबल), अमेरिकी (स्टीन बैक), स्लाव (जीरो मूका और चापेक), अफ्रीकी (बेन ओकरी) और इतालवी (रॉबर्टो ब्राको) लेखकों की रचनाएँ भी उन्हें उभारती और रेखांकित करती चलती हैं।
विश्व के सभी बड़े कहानीकार अपने निजी और राष्ट्रीय जीवन में भारी उतार-चढ़ाव झेल चुके हैं। भीष्म साहनी और यशपाल ने विभाजन की त्रासदी को करीब से जिया था, तो ओकरी, चापेक तथा स्टीन बैक ने भी अकाल, तानाशाही और विस्थापन का दर्द झेला है। गुलेरी विश्वयुद्ध के चश्मदीद गवाह रहे हैं, तो विद्यासागर नौटियाल भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के उत्थान पतन के चरम क्षणों के ! इसलिए उन सभी की कहानी-कला का मर्म है मानव जीवन के मूल्यों को लेकर एक सतत दुविधा और विस्मय का भाव यह दुविधा और यह विस्मय मानव जीवन की असारता या क्षुद्रता के प्रति खीझ से नहीं उपजते। यह सामान्य मनुष्यों की जिन्दगी में यदा-कदा हठात् झलक उठने वाली महानता और दार्शनिक गहराई को लेकर कथाकार के मन-मस्तिष्क में लगातार एक गहरी हलचल मचाए रखते हैं।
और शायद यही वजह है कि अपनी कहानियों में किस्सागो प्रेमचन्द, गुलेरी, भुवनेश्वर, यशपाल अथवा भगवतीचरण वर्मा कालक्रम के परे अपने समयवस समकालीन पाठकों के लिए रहे होंगे। तो इस बिन्दु पर आकर हमें कुछ-कुछ समझ में आने लगता है कि सफल कथा लेखन का प्रतिमान क्या है ? चित्र में खड़े प्रेमचन्द जब वे नहीं लिख रहे हैं, दरअसल बाहर नहीं, स्वयं अपने भीतर झाँक रहे हैं, वे उन तमाम दुविधाओं, रहस्यों और अन्तरंग झलकियों को स्वयं अपनी बुद्धि, अपने चेतन-अवचेतन मन की कसौटी पर कस रहे हैं और उन्हें देखते-देखते इत्मीनान हो जाता है कि एक और अविस्मरणीय अद्भुत कहानी अब बस लिखी ही जानेवाली है।
विश्व के समर्थ कहानीकारों और उनके समृद्ध रचना संसार को पाठकों तक ले जाने का ‘कादम्बिनी’ का यह विनम्र प्रयास आशा है, सुधी पाठकों और साहित्य के रचयिताओं, को एक समान सरस और प्रेरणादायक लगेगा। शमशेर बहादुर सिंह द्वारा एक लेखिका (सुभद्रा कुमारी चौहान) के प्रसंग में कहे गए शब्द उधार लें, तो इन कथाओं में भी : ....छल नहीं है, बनावट नहीं है, दिखावा नहीं है, न प्रशंसा की माँग है, सिर्फ उमंग है, और दर्द है, एक गहरी संवेदना है, जिन्दगी का असली बाँकपन है। उसमें अगर कला है तो यही सब है। कला का तो मूव और सूद जो कुछ भी है, केवल उधार लिया गया है अपनी और समाज की भरी-पूरी जिन्दगी से।’........
-मृणाल पाण्डे
इन कहानियों के पीछे
जब ‘कादम्बिनी’ की संपादक के रूप में मृणाल जी
कार्यभार
सँभालेंगी, यह तय हो गया तो हमने कुछ नए स्तम्भ शुरू करने पर विचार किया।
एक ऐसा स्तम्भ शुरू करने का इरादा भी बना जिसमें हिन्दी के वरिष्ठ और
प्रतिष्ठित कथाकार विश्व-साहित्य अथवा भारतीय साहित्य से कोई एक ऐसी कहानी
प्रस्तुत करें जिसने उन्हें अपने जीवन में सबसे ज्यादा प्रभावित किया हो
और वे पाठकों को यह बताएँ कि क्यों वे कहानी से इतने प्रभावित हैं ? सबसे
पहले इसके लिए वरिष्ठ कथाकार निर्मल वर्मा से सम्पर्क किया गया और
उन्होंने तत्परता से सहयोग दिया। उनके कारण चेक कथाकार कारेल चापेक की
अविस्मरणीय कहानी ‘टिकटों का संग्रह’ से इस स्तम्भ की
शुरूआत
हुई और प्रसन्नता की बात है कि तब से जिन भी वरिष्ठ कथाकारों से संपर्क
किया गया, उन्होंने सहयोग दिया और उनकी नजर में जो भी श्रेष्ठतम कहानी थी,
उसे उन्होंने इस स्तम्भ के लिए भेजा। भीष्म जी जैसे अप्रतिम कथाकार आज
हमारे बीच नहीं हैं जिनका मैं यहाँ विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा।
मैंने उनसे टेलीफोन पर जब इस स्तम्भ के लिए सहयोग देने का आग्रह किया तो
उस समय वे काफी बीमार थे और उन्हें बात करने में भी दिक्कत हो रही थी।
उन्होंने कहा कि अभी मैं इस स्थिति में नहीं हूँ कि कुछ कर सकूँ, लेकिन इसके तीसरे दिन ही डाक से एक लिफाफा आया जिसके अन्दर भीष्म जी द्वारा प्रस्तुत एक लोककथा ‘बोलता लिहाफ’ थी। मैं इस बात को भी कभी भूल नहीं सकूँगा। बिज्जी (विजयदान देथा) को ये विचार इतना ज्य़ादा पसन्द आया कि उन्होंने प्रस्ताव किया कि वे इस स्तम्भ के लिए दुनिया के महानतम कहानीकारों की कहानियाँ अपनी टिप्पणी के साथ निरन्तर देना चाहेंगे। विष्णु प्रभाकर जी ने अपनी निरन्तर अस्वस्थता के बावजूद सहयोग देने में जरा भी विलम्ब नहीं किया। कृष्णा सोबती जी ने भी बहुत उत्साह से सहयोग दिया। नौटियाल जी ने इस स्तम्भ के लिए पत्र-पत्रिकाओं के अपने खजाने को टटोला और सालभर बाद उन्हें मधुरेश जी की मदद से जीरो भूका ही अविस्मरणीय कहानी ‘जड़ें’ मिली, पुराने जर्जर पन्नों पर 1956 में छपी। हृदयेश जी को चालीस वर्ष पहले पढ़ी हुई प्रीतमसिंह पंछी की कहानी ‘मनुष्य का बेटा’ याद आई और उसे ढूँढ़कर उन्होंने भेजा।
राजेन्द्र जी से जब इस स्तम्भ के लिए अपनी प्रिय कहानी देने के लिए रहा गया तो सैकड़ों कहानियाँ उनकी स्मृति की स्क्रीन पर जलने-बुझने लगीं और आत्मसंघर्ष के बाद उन्होंने भुवनेश्वर की क्लासिक कहानी ‘भेड़िये’ का चयन किया। जिन वरिष्ठ कथाकारों का यहाँ उल्लेख नहीं है उन्होंने भी अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच समय निकालकर, बहुत सोच-समझकर, किसी पत्रिका के पुराने जर्जर पन्नों को टटोलते हुए एक कहानी तलाश करके दी और उस पर टिप्पणी लिखी। भीष्म जी ने जरूर कोई टिप्पणी नहीं लिखी। उनका कहना था कि यह लोककथा अपने आप में इतनी स्पष्ट है कि यह किसी टिप्पणी की मोहताज नहीं।
हमारे वरिष्ठ कथाकारों के इस सहयोग का ही प्रतिफल है कि ‘कथा-प्रतिमान’ ‘कादम्बिनी’ के सबसे लोकप्रिय पाठकों ने कई बार की है जिससे साबित होता है कि उनमें अच्छी रचनाएँ पढ़ने की जबरदस्त भूख है। ‘कादम्बिनी’ का प्रयास है कि उसके पाठकों में यह भूख और जागे।
उन्होंने कहा कि अभी मैं इस स्थिति में नहीं हूँ कि कुछ कर सकूँ, लेकिन इसके तीसरे दिन ही डाक से एक लिफाफा आया जिसके अन्दर भीष्म जी द्वारा प्रस्तुत एक लोककथा ‘बोलता लिहाफ’ थी। मैं इस बात को भी कभी भूल नहीं सकूँगा। बिज्जी (विजयदान देथा) को ये विचार इतना ज्य़ादा पसन्द आया कि उन्होंने प्रस्ताव किया कि वे इस स्तम्भ के लिए दुनिया के महानतम कहानीकारों की कहानियाँ अपनी टिप्पणी के साथ निरन्तर देना चाहेंगे। विष्णु प्रभाकर जी ने अपनी निरन्तर अस्वस्थता के बावजूद सहयोग देने में जरा भी विलम्ब नहीं किया। कृष्णा सोबती जी ने भी बहुत उत्साह से सहयोग दिया। नौटियाल जी ने इस स्तम्भ के लिए पत्र-पत्रिकाओं के अपने खजाने को टटोला और सालभर बाद उन्हें मधुरेश जी की मदद से जीरो भूका ही अविस्मरणीय कहानी ‘जड़ें’ मिली, पुराने जर्जर पन्नों पर 1956 में छपी। हृदयेश जी को चालीस वर्ष पहले पढ़ी हुई प्रीतमसिंह पंछी की कहानी ‘मनुष्य का बेटा’ याद आई और उसे ढूँढ़कर उन्होंने भेजा।
राजेन्द्र जी से जब इस स्तम्भ के लिए अपनी प्रिय कहानी देने के लिए रहा गया तो सैकड़ों कहानियाँ उनकी स्मृति की स्क्रीन पर जलने-बुझने लगीं और आत्मसंघर्ष के बाद उन्होंने भुवनेश्वर की क्लासिक कहानी ‘भेड़िये’ का चयन किया। जिन वरिष्ठ कथाकारों का यहाँ उल्लेख नहीं है उन्होंने भी अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच समय निकालकर, बहुत सोच-समझकर, किसी पत्रिका के पुराने जर्जर पन्नों को टटोलते हुए एक कहानी तलाश करके दी और उस पर टिप्पणी लिखी। भीष्म जी ने जरूर कोई टिप्पणी नहीं लिखी। उनका कहना था कि यह लोककथा अपने आप में इतनी स्पष्ट है कि यह किसी टिप्पणी की मोहताज नहीं।
हमारे वरिष्ठ कथाकारों के इस सहयोग का ही प्रतिफल है कि ‘कथा-प्रतिमान’ ‘कादम्बिनी’ के सबसे लोकप्रिय पाठकों ने कई बार की है जिससे साबित होता है कि उनमें अच्छी रचनाएँ पढ़ने की जबरदस्त भूख है। ‘कादम्बिनी’ का प्रयास है कि उसके पाठकों में यह भूख और जागे।
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